मनोरंजन

महेश भट्ट ने मनोरंजन उद्योग में बढ़ती चुनौतियों पर चिंता जताई — उन्होंने इसे एक “अँधेरे समय” जैसा बताया है जिसमें कलाकारों और निर्माताओं को ज़्यादा दबाव महसूस हो रहा है।

महेश भट्ट ने यह टिप्पणी एक पैनल-चर्चा में की—जहाँ वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल के साथ मनोरंजन और मीडिया के वर्तमान हालात पर बातचीत हुई। पैनल का मकसद मुख्यधारा के मनोरंजन व्यवसाय की स्थिति पर बहस करना था और इसी दौरान भट्ट ने इसे “अंधेरे-समय” (dark times) बताया।


उन्होंने क्या कहा….

  • भट्ट ने कहा कि आज का मुख्यधारा मनोरंजन व्यवसाय मूलतः “ध्यान खींचने” पर टिका है और यही वजह है कि अब कहानी-कहानी कहने की हॉराइजन छोटी होती जा रही है।
  • उनका स्पष्ट आरोप है कि सोशल मीडिया, उसकी एल्गोरिदम-लॉजिक और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने स्थिति और खराब कर दी है — ऐसे प्लेटफार्म “शोर” को इनाम देते हैं और नाज़ुक/सूक्ष्म (nuance) रचनात्मकता को दबाते हैं.
  • उन्होंने यह भी कहा कि इस माहौल में सच बोलने-वाले/विकल्‍पात्मक आवाज़ें अक्सर “जंगल में एक तूती की आवाज़” जैसा बन कर रह जाती हैं — यानी उनका प्रभाव सीमित और असहाय हो जाता है।

वे किन ख़ास चिंताओं की ओर इशारा कर रहे हैं

  1. कमर्शियल दबाव व क्लिक-इकॉनॉमी — अब कंटेंट का मापदंड ‘कितने व्यू/लाइक मिले’ बन गया है; इसलिए निर्माताओं के लिए जोखिम-लेना और नई तरह की कहानियाँ परोसा जाना मुश्किल हुआ है।
  2. सोशल मीडिया-एल्गोरिदम का प्रभाव — एल्गोरिदम शॉर्ट-फॉर्म, क्रेज़ी या ट्रेंड-चेसिंग कंटेंट को बढ़ावा देकर सूक्ष्म, कठिन और चुनौतीपूर्ण विषयों के लिए जगह कम कर रहे हैं।
  3. स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर डर — भट्ट ने संकेत दिया कि अब कलाकार/लेखक खुलकर बोलने या आलोचनात्मक कंटेंट देने से हिचक रहे हैं क्योंकि तत्काल सोशल-रेएक्शन (बॉयकॉट, ट्रोलिंग, ब्रॅंड-डाइव) का जोखिम रहता है।

यह टिप्पणी क्यों मायने रखती है …

  • सांस लेने की जगह घटेगी: प्रतिष्ठित निर्माता-निर्देशक का ऐसा बयान इस बात को रेखांकित करता है कि संस्थागत और डिजिटल दबाव किस तरह रचनात्मक स्पेस को सिकोड़ रहे हैं — इसका असर फिल्मों/वेब-शो/डॉक्यूमेंट्री पर सीधे पड़ेगा
  • मार्केट-फोकस में बदलाव: निवेशक और प्लेटफॉर्म अब ‘जिम्मेदार’ जोखिम कम उठाएँगे; छोटे-सर्जनात्मक प्रोजेक्ट्स को रिलीज़-मिलीभगत और फंडिंग मिलने में दिक्कत हो सकती है।
  • सामुदायिक प्रतिक्रिया और नीति बहस: इस तरह के बयान अक्सर इंडस्ट्री-भीतरी और पब्लिक-डिस्कोर्स को जगाते हैं — कि क्या प्लेटफॉर्म/नियम-कानून/कंटेंट-इकोसिस्टम को संतुलित करने की जरूरत है।

इंडस्ट्री की संभावित प्रतिक्रियाएँ….

  • कुछ निर्माताएँ/कलाकार अलग वितरक-मार्ग (फेस्टिवल, निच-OTT, प्लेटफॉर्म पार्टनरशिप) अपनाने का विकल्प चुन सकते हैं।
  • क्रिएटिव-कम्युनिटी से खुली बहस/पैनल-सीरीज़ बढ़ सकती है ताकि समाधान ढूँढे जाएँ (जैसे एल्गोरिदमिक पारदर्शिता, कंटेंट-सपोर्ट फंड)।
  • नीति/निगरानी पर संवाद उत्तेजित हो सकता है — उदाहरण के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर कुछ प्रकार की ऑडिट/गाइडलाइंस की माँग।

संक्षेप …

महेश भट्ट का कहना है कि सोशल-डिजिटल युग और ध्यान-आधारित अर्थव्यवस्था ने रचनात्मक स्वतंत्रता और जोखिम उठाने की संस्कृति को कमजोर कर दिया है — इसलिए आज का समय मनोरंजन के लिए ‘अंधेरों वाला समय’ बन गया है।

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