
छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले के भूमका और हिर्री गांवों की बहुत ही अद्वितीय सांस्कृतिक परंपरा है। पूरे भारत में दशहरे पर रावण दहन की परंपरा है, लेकिन यहां की मान्यता और रीति पूरी तरह अलग है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
🔸 रावण दहन नहीं, मिट्टी के रावण का वध
- इन गांवों में रावण का पुतला जलाया नहीं जाता, बल्कि मिट्टी से बना विशाल रावण तैयार किया जाता है।
- रामलीला के मंचन के बाद इस मिट्टी के रावण का वध किया जाता है।
🔸 नाभि से अमृत निकालने की परंपरा
- सबसे खास और अनूठा हिस्सा यह है कि रावण की नाभि से अमृत या कृत्रिम रक्त निकाला जाता है।
- यह अमृत एक तरह का लाल तरल (रंगीन द्रव्य) होता है।
- ग्रामीण इस अमृत को अपने माथे पर तिलक लगाते हैं और इसे शुभता व समृद्धि का प्रतीक मानते हैं।
🔸 मान्यता और आस्था
- ग्रामीणों की मान्यता है कि रावण की नाभि से निकला यह अमृत सुख-शांति, शक्ति और समृद्धि प्रदान करता है।
- यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है और आज भी पूरे विश्वास और उत्साह के साथ निभाई जाती है।
- दिलचस्प बात यह है कि इसका सीधे-सीधे रामायण या रावण की ऐतिहासिक कथा से संबंध नहीं है, बल्कि यह पूरी तरह स्थानीय आस्थाओं और संस्कृति पर आधारित है।

🔸 सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
- यह परंपरा न सिर्फ धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि गांव की सांस्कृतिक पहचान भी है।
- दशहरे का यह रूप लोगों को अपनी परंपरा, संस्कृति और आस्था से जोड़कर रखता है।
- अमृत का तिलक समुदायिक एकता और विश्वास का प्रतीक भी है।
🔸 दूर-दूर से लोग क्यों आते हैं?
- इस परंपरा की चर्चा अब आसपास के जिलों तक फैल चुकी है।
- दशहरे के मौके पर लोग भूमका और हिर्री गांवों में आकर इस अनोखे ‘रावण वध’ को देखने के लिए पहुंचते हैं।
- यहां का दशहरा इसलिए खास है क्योंकि यह जलते हुए रावण का दृश्य नहीं दिखाता, बल्कि जीवित संस्कृति और लोकमान्यता का अनूठा संगम प्रस्तुत करता है।
👉 संक्षेप में कहा जाए तो, कोंडागांव के भूमका और हिर्री गांवों का दशहरा धार्मिक अनुष्ठान से ज्यादा स्थानीय आस्था, लोककथा और संस्कृति का जीवंत उत्सव है।