“बैंक ने मार डाला! अपने ही पैसों के लिए तरसता रहा मजदूर – तड़प-तड़पकर तोड़ा दम

दो महीने तक बेटे ने काटे बैंक के चक्कर, मैनेजर बोले – ‘कैश नहीं है’ — पीड़ित का आरोप: मेरे पिता की मौत का जिम्मेदार बैंक है
जिला सहकारी बैंक पांडिया छपारा की करतूत – जमा पूंजी न देने से गई मजदूर की जान”
“क्या आप अपने पैसे बैंक में सुरक्षित मानते हैं? तो ज़रा ये खबर देखिए — क्योंकि ये खबर आपकी आंखें खोल देगी! मध्यप्रदेश के सिवनी जिले में एक गरीब मजदूर की मौत सिर्फ इसलिए हो गई क्योंकि बैंक ने उसके इलाज के लिए जमा दो लाख रुपये नहीं दिए। जी हां! बैंक ने कहा — ‘कैश नहीं है’ और एक बाप की जान चली गई। ये सिर्फ लापरवाही नहीं — ये सीधी-सीधी हत्या है! अब ये सवाल पूरे सिस्टम पर है: क्या गरीब की जान की कोई कीमत नहीं?”
“ये मौत नहीं… सिस्टम की दरिंदगी है। ये हत्या है — उस बैंकिंग व्यवस्था की, जो गरीब का खून चूसती है, और वक्त आने पर उसे तड़पाकर मार डालती है। नाम है जिला सहकारी बैंक, ब्रांच – पांडिया छपारा। जहाँ गरीब के दो लाख रुपये जमा थे… मगर जब जान बचाने की बारी आई, तो बैंक ने मुंह मोड़ लिया।”
वीओ -2:
“शैलेंद्र दास नागेश्वर — ये वही बेटा है जिसने दो महीने तक बैंक के चक्कर काटे। मैनेजर से लेकर जनरल मैनेजर, समिति के अधिकारी तक – सबके सामने हाथ जोड़े, पैर पकड़े… लेकिन सबने कहा – ‘कैश नहीं है’! और इसी जवाब में उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा सहारा चला गया।”

“मैनेजर कौन हैं? धनेंद्र राहंगडाले। नाम याद रखिए – क्योंकि शैलेंद्र का सीधा आरोप है – इनकी वजह से ही उसके पिता की मौत हुई है। क्या इन पर अब हत्या का मुकदमा दर्ज होगा?”
“अब सवाल बैंक पर नहीं – शासन पर है! क्या ऐसे सिस्टम को आप बचाएंगे? क्या कोई कार्रवाई होगी? या हर गरीब को इसी तरह मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा?”

“ये सिर्फ खबर नहीं, एक आंदोलन की शुरुआत है। और अगर अब भी शासन-प्रशासन नहीं जागा, तो हर गांव, हर घर से आवाज उठेगी – ‘बैंक ने मारा है!’ स्वराज हो या सहकारिता — जब गरीब की जान की कीमत नहीं, तो फिर ये सब किसके लिए?
हम मांग करते हैं:
दोषी बैंक अधिकारियों पर हत्या का मुकदमा दर्ज हो,
तत्काल बर्खास्तगी हो, और पीड़ित परिवार को मुआवजा और सरकारी सहायता मिले।”*
“मजदूर की जान गई… बैंक चुप है… शासन चुप है… कौन देगा जवाब?”